मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पलकों को बन्‍द करके ......


मैं भी ढूंढूगीं नन्‍हीं हथेलियों से

पलकों को बन्‍द करके बोली वो ।

छुपन-छुपाई खेल भाया है मन को,

दो, पांच, दस जल्‍दी गिनके बोली वो।

नहीं दिखता मुझे कोई यहां पर,

जाने कहां छुपा है हमजोली वो ।

कहां चले गये सब भइया आओ न,

दिखते नहीं हो पुकार के बोली वो ।

झांका उसने घुटनों के बल बैठ कर,

कभी फर्श पे लेट कर थक के बोली वो ।

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर .... प्यारी सी पंक्तियाँ हैं....

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  2. प्यारी गुडिया की प्यारी सी बात.... ढूँढने के लिए तो मेहनत करनी हो न :)

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  3. छुपन-छुपाई खेल तो मुझे भी बहुत अच्छा लगता है...

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  4. हम बच्चों का मन पसंद खेल है यह तो ....और इस सुन्दर कविता के तो क्या कहने
    नन्ही ब्लॉगर
    अनुष्का

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  5. इस कोमल एहसास के क्या कहने

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  6. बहुत सुन्दर बाल कविता है!
    --
    आपकी पोस्ट की चर्चा बाल चर्चा मंच पर भी की गई है!
    http://mayankkhatima.blogspot.com/2010/10/23.html

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  7. इस कली को बहुत सारा प्यार और आशीर्वाद।

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  8. मन को छू गये ये मासूम से भाव।

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  9. “नन्हें दीपों की माला से स्वर्ण रश्मियों का विस्तार -
    बिना भेद के स्वर्ण रश्मियां आया बांटन ये त्यौहार !
    निश्छल निर्मल पावन मन ,में भाव जगाती दीपशिखाएं ,
    बिना भेद अरु राग-द्वेष के सबके मन करती उजियार !! “

    हैप्पी दीवाली-सुकुमार गीतकार राकेश खण्डेलवाल

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