शुक्रवार, 15 मार्च 2013

माँ के साये में .... (2)


















माँ के साये में  ... वो बेखौफ़ हो उठ जाती सूरज की किरणों का अभिनन्‍दन करने को जो ख्‍याल बन हर लम्‍हा उसके साथ चलती थीं, कभी माँ को नींद में ही पुकारती माँ भी नींद में बुदबुदाती आवाज़ में कहती .. बेचैन आत्‍मा चैन से सोने भी नहीं देती, लम्‍हा - लम्‍हा सरकता और वो ख्‍यालों की उँगली थाम परिक्रमा करने लगती माँ की, इसी क्रम में जाने कब सुबह से शाम हो जाती और फिर जब नींद से आँखे बोझिल होती तो आवाज देती माँ को और उधर से आवाज आती सो जाओ, बस फिर क्‍या था पलकें मुँदने लगती, यह उसके जीवन का रोज का घटनाक्रम था ... इन बातों से उसे कभी लगता ही नहीं थी कि वह अकेली है जब भी मन किया एक दस्‍तक़  ... कभी-कभी तो माँ पलट कर उसकी बात का जवाब भी नहीं देती थी पर वो मन ही मन जाने कितना कुछ कह डालती ... कुछ भी अनकहा नहीं रहने देती ... मैं हैरान हूँ उसकी डायरी का यह पन्‍ना पढ़ते हुए ... आपको कैसा लग रहा है कि ये कोई लड़की है या फिर कोई पागल जिसे सनक सी हो आई है माँ के ख्‍यालों की जो  डूबती उतरती रहती है ख्‍यालों की नदी में ... अगले पन्‍ने पर मैं चलूं उसके साथ कुछ और हैरानियों का गोता मारने ... तब तक आप मुझे अपने विचारों से अवगत कराइये...

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 16/03/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!

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  2. माँ के साये को हमेशा अहसास होता है,सुन्दर रचना.

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  3. बहुत ही सुन्दर
    माँ तो हर पल साथ ही होती है ....

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  4. मन ही मन माँ को समर्पित बेटी की दास्तान ... खूबसूरत एहसास

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