
लड़की हूं मैं,
मेरे सपनों का शीश महल, कभी उसका कोई शीशा टूटता तो कभी कोई चकनाचूर हो जाता, पर मैं किसी से शिकायत नहीं कर सकती थी, भाई पढ़ने जाते तो मैं खुशी-खुशी उनका हर काम करती, आते तो उनके लिये खाना लगाती, देर हो जाती तो वह मेरी चोटी खींच लेते, खुद अपना सामान इधर-उधर फैलाते, और जब नहीं मिलता तो मुझे डांट लगाते, क्या मेरा लड़की होना अपराध है ? सोचती हूं मैं भी पढ़ने जाऊं पर बापू ने मेरा नाम नहीं लिखाया, दादी कहती इसे तो घर का कामकाज सिखाओ, दूसरे घर जाना जाना है, यह दूसरे घर बेटियां क्यों जाती हैं ? उन्हें दूसरे घर जाना होता है क्या इसलिये उन्हें पढ़ाया नहीं जाता या फिर वह पढ़ने जायेंगी तो घर का काम कौन करेगा, मुन्ना को कौन खिलाएगा ?
मां के साथ
हर काम में उनका
हांथ बटाती
छोटे भाई को
अपनी गोद में उठाये-उठाये
कभी मेरी कमर
दर्द से दुहरी हो जाती
पर वह रोये न इसलिये
मैं उसे नीचे नहीं उतारती
वह रोएगा
तो सब मुझको डांटेंगे
मैं लड़की हूं न
सोचती भी हूं,
समझती भी हूं
किससे कहूं
जो अपने गांव में डाक्टर हैं
वह भी तो लड़की हैं किसी की
जो पढ़ाती हैं स्कूल में
वह भी तो बेटी हैं किसी की
उनके मां-बापू कितने अच्छे हैं
जो उन्होंने उन्हें पढ़ाया ।