खुशियों का मेला लगता है
बचपन की गलियों में
हर कोई अपने में मस्त
फिक्र के साये
दूर खड़े झुंझलाते रहते हैं बस
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हर चीज़ बिखरी रहती है
कितना भी समेटो
उसे तो बस वही चाहिए होता है
जो चीज़ करीने से रखी होती
सोफे के कवर
उसे ज़मीन पर अच्छे लगते
खिलौने पलंग पर बिखरे
मस्ती का आलम
जिसको देखो मुंह पे उंगली रख
डांट कर चुप करा देती
जब चाहे किसी के कान खींच देती
उसकी तोतली बोली सुन बड़े भी वही
रोटी को तोती पानी को मम कहते
उसके होने से बचपन लौट आता है
उम्र दूर खड़ी देखती रहती है
ये बचपन के पल ही
बस हर पल सच्चे होते है ...