बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

ये बचपन के पल.....














खुशियों का मेला लगता है
बचपन की गलियों में
हर कोई अपने में मस्‍त
फिक्र के साये
दूर खड़े झुंझलाते रहते  हैं बस

................
हर चीज़ बिखरी रहती है
कितना भी समेटो
उसे तो बस  वही चाहिए होता है
जो चीज़ करीने से रखी होती
सोफे के कवर
उसे ज़मीन पर अच्‍छे लगते
खिलौने पलंग पर बिखरे
मस्‍ती का आलम
जिसको देखो मुंह पे उंगली रख
डांट कर चुप करा देती
जब चाहे किसी के कान खींच देती
उसकी तोतली बोली सुन  बड़े भी वही
रोटी को तोती पानी को मम कहते
उसके होने से बचपन लौट आता है
उम्र दूर खड़ी देखती रहती है
ये बचपन के पल ही
बस हर पल सच्‍चे होते है ...

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'

मॉं कैसे तुम्‍हें
एक शब्‍द मान लूँ
दुनिया हो मेरी 
पूरी तुम 
ऑंखे खुलने से लेकर 
पलकों के मुंदने तक 
तुम सोचती हो 
मेरे ही बारे में 
हर छोटी से छोटी खुशी 
समेट लेती हो 
अपने ऑंचल में यूँ 
जैसे खज़ाना पा लिया हो कोई 
सोचती हूँ ...
यह शब्‍द दुनिया कैसे हो गया मेरी 
पकड़ी थी उंगली जब 
पहला कदम 
उठाया था चलने को 
तब भी ... 
और अब भी ...मुझसे पहले 
मेरी हर मुश्किल में 
तुम खड़ी हो जाती हो 
और मैं बेपरवाह हो 
सोचती हूँ

मॉं हैं न सब संभाल लेंगी ..... 

मॉं की कलम मेरे लिए .... 

लगता है 
किसी मासूम बच्चे ने
मेरा आँचल पकड़ लिया हो 
जब जब मुड़के देखती हूँ
उसकी मुस्कान में 
बस एक बात होती है
'मैं भी साथ ...'
और मैं उसकी मासूमियत पर 
न्योछावर हो जाती हूँ
आशीषों से भर देती हूँ
कहती हूँ 
'मैं तो तुम्हारे पास हूँ ...'