बुधवार, 18 जुलाई 2012

ना मेरी ना तुम्‍हारी !!!














माँ 
ये शब्‍द जब भी सुनती हूँ
कहीं पढ़ती हूँ
एक ख्‍याल बन तुम
उतर जाती हो सीधे मन में
कभी गुनगुनाती हो
कोई मीठी धुन
कभी कोई सुगंध बन
महका जाती हो चितवन
तुम्‍हारा ख्‍याल
हर ख्‍याल से प्‍यारा लगता है
उसमें होती है
एक स्‍नेह भरी मुस्‍कान
तुम्‍हारी आहट बिन
मन में अकुलाहट सी होती है
क्‍यूँ ... भला
मैं तो हमेशा तुम्‍हारे पास होती हूँ
कहती हो तुम हमेशा
मेरे सिर पर
एक हल्‍की सी चपत लगा के
पर क्‍या करूं माँ
तुम याद आती हो तो फिर आती हो
फिर तुम्‍हारा ख्‍याल सब पर
भारी हो जाता है
किसी की नहीं सुनता
ना मेरी ना तुम्‍हारी !!!
...