बेफिक्री की चादर ओढ़ी है मैने जब से
मां फिक्र के साये में रहने लगी है
कब मैं बड़ी होऊंगी
मेरी नादानियों पे कभी-कभी
वो खफ़ा होने लगी है
ये भागती दौड़ती जिन्दगी जहां
खुशियों का ठौर नहीं
मेरी ख्वाहिशें इनमें गुम न जाएं कहीं
मां की हिदायतें मेरे लिए
समझाइशें होने लगी हैं ...
मैं निश्चिन्त सी यूँ
जैसे कोई बूंद बारिश की
जो बेपरवाह सी
कभी पत्तों पर ठहर जाएगी
या धरती के सीने में
ज़ज्ब हुई तो
सोंधी सी महक बन
फिज़ाओं में घुल जाएगी
नदिया में पड़ी जो
कलकल की ध्वनि बन
पहाड़ों का सीना
छलनी कर इक धारा बन
सागर में मिल जाएगी ...
इस चंचलता में
मेरे संग एक मुस्कान
ओढ़कर मुस्काती है मां
और भावुक होकर कहती है
तुम कुछ भी बनना
लेकिन किसी के
निगाहों की नमी मत बनना
ये नमी किसी कमी का
अहसास दिला जाती है ....