शनिवार, 6 नवंबर 2010

फुलझड़ी की चमक ....


रौशनी करते ही फुलझड़ी की

चमक उठी नन्‍हीं की आंखे भी

उसने भी अपनी छोटी सी हथेली को

फैलाया उसे पकड़ने के लिऐ

रौशनी में उसका उछलना

हर्षित कर गया मन को

दो न ...मुझे भी .. जलाना है ...

हमारा डर ...उसकी खुशी

हमारा रोकना ...उसका पकड़ना

फुलझड़ी को ...उसके पास ले गया ...

पता ही नहीं चला ...

उसके यह शब्‍द

दीवाली में आपके लिए .....



मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

पलकों को बन्‍द करके ......


मैं भी ढूंढूगीं नन्‍हीं हथेलियों से

पलकों को बन्‍द करके बोली वो ।

छुपन-छुपाई खेल भाया है मन को,

दो, पांच, दस जल्‍दी गिनके बोली वो।

नहीं दिखता मुझे कोई यहां पर,

जाने कहां छुपा है हमजोली वो ।

कहां चले गये सब भइया आओ न,

दिखते नहीं हो पुकार के बोली वो ।

झांका उसने घुटनों के बल बैठ कर,

कभी फर्श पे लेट कर थक के बोली वो ।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

फिर से जी लूंगी ......


मन ही मन मैं,

तेरा नाप लेकर,

बनाती रही तेरे,

तन के कपड़े

नहीं ये छोटा होगा,

नहीं ये होगा बड़ा,

करती खुद से जाने

कितने झगड़े

तन के कपड़े . . . ।

तू गोरी होगी,

या सांवरी

मैं भी बावरी बन

सजाती रही गुडि़या पे

तेरे वो कपड़े

तन के कपड़े . . . ।

झलक तेरी आंखों में

लेकर सोती तो,

ख्‍वाबों में फिरती

तुझको पकड़े-पकड़े

तन के कपड़े . . . ।

मैं अपना बचपन

फिर से जी लूंगी

तू आ जाएगी तो

मिट जाएंगे सारे झगड़े

तन के कपड़े . . .।

सोमवार, 16 अगस्त 2010

शीशे में यदि ....


नन्‍ही परी मेरी

घुटनों के बल चलती है,

खड़े होने की कोशिश में

कभी वह सहारा लेती है

मजबूत चीजों का,

कभी उसके हांथ में टेबिल

आ जाती है

तो कभी पलंग का कोना,

कभी वह ड्रेसिंग टेबिल पकड़ती,

और फिर उस पर रखती अपने खिलौने,

तब उसकी खुशी का ठिकाना नहीं होता,

शीशे में यदि दिख जाता

उसे अपना चेहरा ....।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जादू की परियां .....









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गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ये खिलौने सी ....


मेरे घर की चौखट

आज जगमगाई

देखो नन्‍ही परी

मेरे घर आई

इसके आने से

आया इसका पलना भी

नाचने वाला बन्‍दर भी

साथ आई इक गु‍डि़या भी

इसके लिये आये

इतने खिलौने,

पर हम सबके लिये

बन के आई ये खिलौने सी

इसकी नासमझ आने वाली बोली भी

दिल को छू जाती

हम हंस पड़ते जब

तब ये भी मुस्‍काती

आंखे उनींदी हो जाती मां जब

इसकी लोरी गाती

कहने को इसकी ढेरों बातें

मेरे घर की चौखट आज ......।

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

बचपन की होली ...


होली आई

मुझको भी

इसके प्‍यारे-प्‍यारे

रंग भा गये,

पापा मेरे लिये भी

पिचकारी लाये

भइया तो दोस्‍तों के साथ

सुबह ही चला गया

अब मैं किसको रंग लगाऊं

सब मुझसे बड़े-बड़े हैं

मुझे ही पहले रंग लगा देते हैं

बहुत हो गया

मैं रो पड़ती कि

पापा आ गये,

मुझसे कोई रंग नहीं लगवाता

सब मुझे ही लगाते हैं

पापा हंसते हुये

अरे देखो मैने

किसी से रंग नहीं लगवाया

पहले मुनिया मुझे रंग लगाएगी

मैं खुश होकर

अपने छोटे-छोटे हांथो से

पूरी ताकत लगा पिचकारी से

पापा की सफेद शर्ट रंगीन करने लगी

उनके मुस्‍कराते चेहरे पर

गुलाल मलने लगी

पापा की यह लाडली

बड़ी हो गई है फिर भी

बचपन की यह होली

आज भी

उन यादों को

ताजा कर जाती है ....।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

रोना पड़ता है ...













लगता है कोई जादू है

मां की गोद में

जो मेरा रोना

बंद हो जाता है

मां बेचैन होकर कहती

क्‍या हुआ

मेरी मुनिया को

सारा घर सर पे उठा रखा था

पर क्‍या करूं मैं

मां की गोदी में आकर

सब कुछ

अच्‍छा लगता है

इसलिए

कभी-कभी

इतना रोना पड़ता है ....।


गुरुवार, 28 जनवरी 2010

कठोरता का आवरण .....





तेरी गोद ने

ममता और दुलार के साथ ही

मां मुझे सिखलाया है

कठिनाईयों से लड़ना,

हालात कितने भी बुरे हों

उनसे लड़कर उबरना

जाने कितने ऐसे पल दिये

मुझको

जिनसे संवारती हूं

मैं अपनों की खुशियां

साकार होते देखती हूं मैं

तेरी दी हुई शिक्षा ने

दिया है एक विशाल हृदय

समेटने को दर्द, आंसू,

सहेजने को विश्‍वास

लुटाने को ममता, दया

कठोरता का आवरण ओढ़कर भी

भीतर से

बिल्‍कुल फूलों सी

कोमल ही हूं .....।