उसका बातूनी होना . अच्छा लगता है, लेकिन वो सबसे बात नहीं कर पाती, घुलने-मिलने में भी सबसे बहुत वक्त लेती
है, वो और उसकी चुप्पी .... दोनो मन ही मन जाने
कितना कुछ साझा कर लेती थीं अपने आप से... जब भी देखा है चुप रहते हुए तो सोच में पड़ जाती हूँ कई
बार ये वही है जो इतनी बातें करती है जिसे चुप होने के लिये कहना पडता है
उसकी माँ को ... कई बार उसका रूठ जाना, चुप रहना दर्शाते उसकी नाराजगी को, उसकी शिकायतों की पोटली हमेशा उसके काँधे पर ही
रहती थी मौका मिला नहीं कि शुरू हो जाती, तुम तो मुझसे प्यार नहीं करती, भैया और दीदी ही तुम्हें भाते हैं मुझे तो
डाँट देती हो ...माँ असमंजस में पड़ जाती कई बार उसे समझाने के फेर में,
पर शायद यह हर बाल मन की व्यथा
रहती है ... वो लिखती है मुझे हर दिशा में माँ के होने का
अहसास होता है, साये में उनके मेरा हर कदम उत्साह के साथ
धरा पर पड़ता है ऐसा आभास भी हुआ है कई बार जैसे ऊपर ही ऊपर मैं उड़
रही हूँ ... ये एहसास एक झरोखे से मन में झाँकते रहते हैं हरदम और मैं घुमती
रहती हूँ बस फिरकनी की तरह ... चारों ओर
वो कई बार सपने में देखती खुद को माँ से दूर जाते हुये तो चिल्ला उठती भय से ... तब माँ ही उसे सम्हालती थपकियाँ देती और कई बार गुनगुनाती कोई लोरी ... पता नहीं किसमें जादू था माँ की आवाज में या फिर उन शब्दों में जो माँ की वाणी का ओज पा मुझे सपनों के गांव ले जाते ... माँ वहाँ भी साथ होती परी के रूप में ... हाँ उन्हें परी कथा सुनाना बहुत भाता है, या फिर काबुली वाला जिनके किस्से सुनाते हुये माँ की आँखों में एक चमक होती थी और उसके चेहरे पर माँ के पास होने की मुस्कान ...
आगे वो करती है ... अपनी पहली होली का जिक्र कोई भी त्योहार होता माँ की जिम्मेदारियाँ और काम हजार गुना बढ़ जाते सबकी फरमाईशों को पूरा करने में खुद से लापरवाह हो ... तन-मन से पूर्णत: समर्पित हर चेहरे पर मुस्कान और मन में खुशी देने में लग जातीं, मेरे छोटे हाँथों से हर बड़ा बचकर निकल जाता, और उलटे मेरे ही गालों पर गुलाल मलते हुये रंग लगाते हुये भाग जाते मैं किसी को रंग लगा ही नहीं पा रही थी, मेरा हम उम्र कोई था भी नहीं आस-पास मैं लगभग रोते हुए माँ के पास पहुँची और बोली ... आप तो काम करती रहती हैं हर वक्त मेरे साथ कोई भी होली नहीं खेल रहा सब मुझे ही रंग कर चले गये मुझे भी खेलना है किसके साथ खेलूँ बताओ न ...
बस पांच मिनट दो ... मैं बताती हूँ तुम्हें किसके साथ रंग खेलना है ....घड़ी देखना तो आता नहीं था माँ ने कहा तो इतना ही वक्त बीता होगा ... वो आईं और उनके हाँथों में गुलाल की प्लेट थी, जिसमें हर रंग था ... मुझे भगवान कृष्ण की मूर्ति के पास ले जाकर बोलीं ... पहला रंग तुम इन्हें लगाओ ... क्यूँकि होली खेलना इन्हें भी खूब भाता है ... और फिर एक चुटकी अबीर कान्हा को लगवाने के बाद वो मेरे सामने पालथी मार बैठ गईं ... चलो हम तुम होली खेलते हैं ... और मेरे गाल से अपना गाल सटा हर रंग में मेरे साथ वो खेलती रहीं ....इन शब्दों को पढ़ लगा उसकी माँ कितनी प्यारी है ... सबकी माँ ऐसे ही होती होगी ... :)
फिर मिलेंगे ... किसी नये रंग के साथ आज तो आपको भी रंग खेलना होगा .... किसी अपने के संग ... तो शुभकामनाएँ रंग-रंगीले त्योहार की ....
वो कई बार सपने में देखती खुद को माँ से दूर जाते हुये तो चिल्ला उठती भय से ... तब माँ ही उसे सम्हालती थपकियाँ देती और कई बार गुनगुनाती कोई लोरी ... पता नहीं किसमें जादू था माँ की आवाज में या फिर उन शब्दों में जो माँ की वाणी का ओज पा मुझे सपनों के गांव ले जाते ... माँ वहाँ भी साथ होती परी के रूप में ... हाँ उन्हें परी कथा सुनाना बहुत भाता है, या फिर काबुली वाला जिनके किस्से सुनाते हुये माँ की आँखों में एक चमक होती थी और उसके चेहरे पर माँ के पास होने की मुस्कान ...
आगे वो करती है ... अपनी पहली होली का जिक्र कोई भी त्योहार होता माँ की जिम्मेदारियाँ और काम हजार गुना बढ़ जाते सबकी फरमाईशों को पूरा करने में खुद से लापरवाह हो ... तन-मन से पूर्णत: समर्पित हर चेहरे पर मुस्कान और मन में खुशी देने में लग जातीं, मेरे छोटे हाँथों से हर बड़ा बचकर निकल जाता, और उलटे मेरे ही गालों पर गुलाल मलते हुये रंग लगाते हुये भाग जाते मैं किसी को रंग लगा ही नहीं पा रही थी, मेरा हम उम्र कोई था भी नहीं आस-पास मैं लगभग रोते हुए माँ के पास पहुँची और बोली ... आप तो काम करती रहती हैं हर वक्त मेरे साथ कोई भी होली नहीं खेल रहा सब मुझे ही रंग कर चले गये मुझे भी खेलना है किसके साथ खेलूँ बताओ न ...
बस पांच मिनट दो ... मैं बताती हूँ तुम्हें किसके साथ रंग खेलना है ....घड़ी देखना तो आता नहीं था माँ ने कहा तो इतना ही वक्त बीता होगा ... वो आईं और उनके हाँथों में गुलाल की प्लेट थी, जिसमें हर रंग था ... मुझे भगवान कृष्ण की मूर्ति के पास ले जाकर बोलीं ... पहला रंग तुम इन्हें लगाओ ... क्यूँकि होली खेलना इन्हें भी खूब भाता है ... और फिर एक चुटकी अबीर कान्हा को लगवाने के बाद वो मेरे सामने पालथी मार बैठ गईं ... चलो हम तुम होली खेलते हैं ... और मेरे गाल से अपना गाल सटा हर रंग में मेरे साथ वो खेलती रहीं ....इन शब्दों को पढ़ लगा उसकी माँ कितनी प्यारी है ... सबकी माँ ऐसे ही होती होगी ... :)
फिर मिलेंगे ... किसी नये रंग के साथ आज तो आपको भी रंग खेलना होगा .... किसी अपने के संग ... तो शुभकामनाएँ रंग-रंगीले त्योहार की ....