शुक्रवार, 18 सितंबर 2009

मां की उलझन ....

मां को कुछ उलझन है,

मेरे आने से

पर वह कहती नहीं जमाने से

कभी-कभी भर लाती

आंखों में आंसू

कहती मुझसे मन ही मन

यह सच है

तू मेरा अंश है

पर बेटी

यह सब कहते

तुझसे चलेगा नहीं

मेरा वंश

तेरा अंत करना चाहते हैं

जन्‍म के पहले

मिटा कर

तुझे नहीं

खत्‍म करना चाहते हैं

खुद मेरा वजूद

बता मैं कैसे

सहयोग करूं

इनका नन्‍हीं बता न

आज मैं भी शपथ लेती हूं

तुझे जन्‍म दूंगी

या अपने आपको

मिटा दूंगी

मैं सोचती

मां की यह उलझन

खत्‍म हो पाएगी कब

मैं खत्‍म हो जाऊंगी

या

मां नहीं रहेगी तब

दुनिया ये कब समझ पाएगी .....!!



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सोमवार, 7 सितंबर 2009

बेटी मन का गहना हो ...

ऐसे मन को तुम संबल देना पूरे मन से,

जिसके आंगन में बेटी मन का गहना हो ।

रीत निभाते जीवन की करके कन्‍यादान कैसे,

पूछो उस बाबुल से जिसके मन को सहना हो ।

आंखों में आंसू होते चेहरे पर संतोष की छाया,

जब विदाई के पल में इन अश्‍कों का बहना हो ।

नाजों पली वो नन्हीं कली मेरे आंगन में अब तक,

थी खुशियां बहुत इसके होने से जब कुछ कहना हो ।

अपनी जाई को सारा जीवन कहा है, पराई है बेटी तू,

दुखी मन होवे तो होवे, नहीं ये किसी से कहना हो ।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

गिर जाती कभी . . . .


बाहों के झूले में चुप हो जाती

सपनों की दुनिया में खो जाती

कभी मुस्‍काती सोते-सोते जब,

मां तो बस तुझमें खो जाती ।

खिलौने हांथ में लेकर वह मुझे,

नन्‍हें कदमों से कभी देने आती ।

पैर धरती पर रखती तो लगता,

उड़ रही हो देख मुझे भाग आती ।

गिर जाती कभी घुटनों के बल वह,

आकर मुस्‍कान से छुपाने लग जाती ।

नयनों से उसके ओझल होती मैं जब,

वह ढूंढती चारों ओर मां कहती जाती ।


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