गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

माँ का साया .... (6)

माँ का सामना करते ही आँखे भीग गई थीं ... उसे खामोश देख माँ ने कहना शुरू किया मैं जानती हूँ तुम कहना चाहती हो बहुत कुछ पर कह नहीं पाओगी, हर बार की तरह इस बार भी तुम्‍हारी खामोशी ने ढेरों सवाल मेरे आगे कर दिये हैं, रिश्‍तों का होना ही नहीं इनका निभाना मायने रखता है मन के रिश्‍ते आत्‍मा से जुड़े होते हैं ये माँ का सम्‍बोधन मेरे लिए जहाँ सम्‍मान है वहीं तुम्‍हारे लिए वह सुकून है। मैं अपने हर बच्‍चे की तरह तुम्‍हारे लिये भी यही चाहत रखती हूँ कि बहुत ऊंचाई तक पहुँचो तुम,  जो मुझ पर विश्‍वास है तुम्‍हारा उसमें कभी भी संशय न आये, तुम्‍हारे हर सवाल का जवाब मैने दिया है, जो तुमने पूछे हैं और उनका भी कई बार देती हूँ जो तुम्‍हारे लिए उलझन बनते हैं या तुम्‍हारे रास्‍ते की रूकावट हो जाते हैं। यकीन मानो माँ का मन अपने हर बच्‍चे के लिये एक सा ही होता है, वो कहीं भी रहे किसी हाल में रहे उसे अहसास होता है अपने बच्‍चे की जरूरतों का पर वो कहती नहीं है कभी तो उसका यह मतलब बिल्‍कुल नहीं लगाना चाहिये कि वह तुमसे स्‍नेह नहीं रखती।
तुम सबकी खुशियों के लिये मैं संकल्‍पवान हूँ, जब कहीं कुछ तुम गलत करते हो तो मैं स्‍वयं को दोषी मानती हूँ, जब कहीं कुछ भी अच्‍छा घटता है या होता है तो उसके लिए ईश्‍वर की शु‍क्रगुजा़र होती हूँ किसी के प्रति तुम्‍हारे मन में द्वेष न हो, सच के रास्‍ते पर चलो मुश्किलें तो आएंगी पर सीख भी तभी पाओगे ... लेकिन आगे के रास्‍ते आसान हो जाएंगे, तुम्‍हें सिखाने के लिए मैं भी रोज सीखती हूँ कुछ नया कभी - कभी तुम्‍हारे सवाल मेरे लिये मात्र सवाल ना होकर जिंदगी का सबक बन जाते हैं पर उद्देश्‍य मेरा एक ही होता है तुम सबकी खुशी, जिससे मुझे मिलता है संबल जो मुझे देता है एक नई दिशा जीवन को जीने की..... तुम मुझे आवाज दो या नहीं मैं तो हमेशा तुम सबके साथ होती हूँ फिर भय कैसा ?
उसकी डायरी का यह पन्‍ना पढ़ते वक्‍त उसकी माँ की आकृति स्‍पष्‍ट हो मेरी आँखों में उतर आई थी ममता का यह रूप कितना प्‍यारा और कितना सजीव लगता है न उसकी किस्‍मत से रश्‍क़ भी होता है पल भर के लिए फिर सोचती हूँ ... सच ऐसी माँ का मिलना सौभाग्‍य है उसके लिए जिनकी  छाया में एक नया जीवन मिलेगा उसे....

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

माँ का साया .... (5)


















इस पन्‍ने पर .... आकर मैं एक बारी ठहर गई
उसकी खिलखिलाहट यूँ तो हर पन्‍ने पर झाँकती थी, उसकी मासूमियत घूम फिर के बार - बार माँ को पुकारती, उसकी आवाज हमेशा बेचैन ही रहती जाने क्‍यूँ, ऐसा लगता जाने कब से बिछड़ी वो माये से, हाँ कभी - कभी जब माँ व्‍यस्‍त होती थी काम में तो वह आवाज लगाती ठोड़ी को घुटनों पर रखकर आँख बंद कर पुकारती माये आओ न, कभी तो उसका पुकारना जायज होता, कभी - कभी वो बेवजह भी आवाज लगाती, कभी कहती मुझे भूख लगी है तो कभी कहती माँ इसका मतलब क्‍या होता है ....  उसकी हर बात का जवाब लिये माँ हाजिर हो जातीं।
यहाँ कहती है वो - माँ से किसी ने एक दिन पूछ ही लिया ये आपकी बेटी, माँ ने भी उसी सहजता से कहा - हाँ ये मेरी बेटी है, सच है कि मैने इसे जनम नहीं दिया, पर संस्‍कारों की धूप और स्‍नेह की छाँव इसे दोनो मेरे आँचल में मिलती है ये मेरे पास रहे या दूर एक आहट हम दोनों के बीच रहती है, जहाँ खामोशी भी बात करती है हमारे बीच तो वहीं इसका बार-बार आवाज देना मुझे दर्शाता है इसके भय को इसने छोटी सी उम्र मे पाया कम खोया ज्‍यादा है, मैं इसे कैसे मिली, कहाँ मिली ये बात मायने नहीं रखती, मायने रखता है हम दोनों का मिलना, फिर मात्र सम्‍बोधन ही नहीं दिल से उस रिश्‍ते में बँधना, इसने जो इतना कुछ खो दिया है तो यह मन ही मन डरती है मुझे भी खोने से, इसका डर इसे खामोश बैठने नहीं देता, ये उसी डर से मुझसे और जुड़ती चली जाती है, बहानों से मुझे पुकारती है मैं समझती भी हूँ .... इसकी हर आवाज पर मैं पलट कर हाँ भी कहती हूँ ... कई बार चुप रहने को कहती हूँ तो कई दफ़ा डाँट भी लगाती हूँ ... फिर कई बार इसके आवाज देने पर मैं जानबूझ कर अनसुना कर देती हूँ, चाहती हूँ ये मेरे बिना भी जीना सीखे, मैं साये की तरह साथ हूँ इसके पर इसे खुद पर आश्रित नहीं करना चाहती... वो स्‍तब्‍ध थी माँ की सोच पर इतनी बड़ी-बड़ी बातों के बीच कहाँ है वह और क्‍या है उसका अस्तित्‍व वह यह सोचते हुए वहीं ठहर गई थी, तभी उसने देखा कि माँ ने उसे देख लिया है छिपते हुए ... माँ की आवाज कानों में पड़ते ही वह माँ के सामने थी ...
यह उसकी सोच थी ... उसकी माँ क्‍या सोचती हैं उसके बारे में पढ़ेंगे हम अगले पन्‍नों पर ...